बदल गई निग़ाहें तेरी मगर हम बदल नहीं पाए...रुक गए उसी मोड़ पर जहां कदम तेरे पहली बात पड़े...
हर रोज़ बहाने से उसी मोड़ पे जाते है,सिर्फ यह देखने भर के लिए..क्या पता तेरे कदम की आहट फिर
इक बार और पड़े...बेसाख्ता मुँह से निकला,हे अल्लाह...पाक तो थी मुहब्बत मेरी फिर कदम उस के
क्यों लौट गए...तेरी दरगाह मे सज़दा रूह से किया तो क्या मेरी दुआ मे कही खोट रहा...तू तो मुकम्मल
है मालिक,मैं ही शायद छोटा सा ज़र्रा रहा..वरना जो कदम खुद चल के आए थे कभी पास मेरे,वो यू
मुझ से दूर क्यों कर हुए...