श्रृंगार के नाम पे उस के पास सिर्फ सूरत ही उस का गहना था...दौलत की बात करे तो पास उस के
चंद लकीरों का छोटा सा मेला था...वो बोली उस से '' इतने भर से क्या मेरे बन पाओ गे ? बिन शृंगार
की मेरी यह सूरत क्या क़बूल कर पाओ गे ? इतनी ग़ुरबत है पास मेरे,क्या रिश्ता यह ताउम्र निभा
पाओ गे''? ख़ामोशी छा गई इतनी कि पत्तों की सरसराहट भी सुनाई देने लगी...नम आँखों से वो सब
समझ गई..उठ के चल दी कि तभी एक आवाज़ सुनाई दी...''क्या साथ मेरे चल पाओ गी ? जीवन बहुत
कठिन है मेरा,क्या राह के कांटे निकाल पाओ गी''...अब बारी थी आसमां के झुक जाने की और बरखा
के खुल के बरस जाने की...