पिता के दिए संस्कारो की डोर ऐसी थामी...जो सिखाया जो पढ़ाया,संग बांध के ज़िंदगी की राह को आगे
बढ़ाया हम ने..चले तो अकेले ही थे पर साथ हज़ारो का काफ़िला पीछे-पीछे आया...मुड़ के अब क्या देखे,
कि दूर तेज़ रौशनी का नूर नज़र जो आया...संस्कारो की जोत कुछ सीखे तो कुछ को कुछ समझ ही ना
आया..पिता के उसी रास्ते पे कितने जुड़े ऐसे जिन को हम मे अपने ही पिता का अक्स नज़र आया...
दम्भी,अभिमानी,कठोर फंसे अपने ही गरूर मे,शायद संस्कारो का मोल उन को बेकार नज़र आया...