ली जो अंगड़ाई तो सुबह खिल के चारो और गुल खिला गई...आईने ने देखा मुझे तो कुदरत की बात
उसे समझ आ गई..सूरज की लालिमा क्यों नरम पड़ गई...यह नाज़ुक जिस्म सूरज के ताप से मुरझा
ना जाए,यह सोच कर सूरज बादलो की ओट मे छुप सा गया...हम बिंदास है,मरज़ी के मालिक है..यह
जान कर यह मौसम भी अपनी दीवानगी पे आ गया..बाहर बिखरे है हज़ारो फूल..लगता है हम को देख
इन को भी हम पे प्यार आ गया..