देह की माटी को जब देह से जुदा किया तो ख्वाइशें लुप्त हो गई...रूह को समेटा जो आकाश मे तो
रूह तो जैसे मुस्कुरा उठी...बंधन जब सब छूटे तो अहसास हवा हो गए...तब ना यह दुनियां दिखी और
ना ही खुदगर्ज़ लोग नज़र आए...कितनी आज़ादी है माटी से परे रूह की ज़न्नत मे...कोई गिला करता
नहीं,कोई शिकवा होता नहीं...ना दौलत का शोर है,ना प्रेम का कोई मोड़ है...रूह हुई निश्छल निश्छल
यही तो इस रूह का बेशकीमती अंदाज़ है...