Monday 5 October 2020

 देह की माटी को जब देह से जुदा किया तो ख्वाइशें लुप्त हो गई...रूह को समेटा जो आकाश मे तो 


रूह तो जैसे मुस्कुरा उठी...बंधन जब सब छूटे तो अहसास हवा हो गए...तब ना यह दुनियां दिखी और 


ना ही खुदगर्ज़ लोग नज़र आए...कितनी आज़ादी है माटी से परे रूह की ज़न्नत मे...कोई गिला करता 


नहीं,कोई शिकवा होता नहीं...ना दौलत का शोर है,ना प्रेम का कोई मोड़ है...रूह हुई निश्छल निश्छल 


यही तो इस रूह का बेशकीमती अंदाज़ है...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...