जिस शहर मे हम आए है,लोग उस को तेरा शहर कहते है...कैसा है यह शहर तेरा,जहां इंसा नहीं
पत्थर के बुत रहते है...बेरुखी से भरे..चिंता से मरे..उम्मीद की लो से कोसों परे...बहता संगीत इन मे
नज़र नहीं आता...मीठे झरने की तरह मीठा बोलना तक नहीं आता...संगीन जुर्म किया हो जैसे,चेहरे
खौफनाक है बिलकुल वैसे...लगता है कुछ अरसे हम को यहाँ रुकना होगा...जनून इन के पागल दिमाग
का सही करना होगा..फ़रिश्ते तो यह कभी ना बन पाए गे...मालिक के बन्दे ही कहलाए,इतना नेक काम
तो तेरे शहर के लोगों के लिए कर ही जाए गे...