राख़ का वो कौन सा ढेर था जिस मे बिखरे ज़ज्बात अभी भी सुलग रहे थे...हाथ ना लगा इस राख़ को
ना जाने कौन सा ज़ज्बात बिखर जाए गा..सुना है कोई मासूम इस मुहब्बत मे क़ुरबान हो गया..मासूम
था इसलिए शायद राख़ मे तब्दील हो गया...मुहब्बत मे उस की पुकार कोई सुन नहीं पाया होगा...एक
मशाल हाथ मे लिए वो अपनी मुहब्बत के पास,यक़ीनन आया भी होगा...बेवफा रही होगी मुहब्बत उस
की,तभी तो वो मासूम मशाल सहित राख़ का ढेर बन गया होगा..ना राख़ होगी ठंडी कि जज्बातों का
महल अभी भी राख़ मे दबा होगा...