भरी महफ़िल मे वो जोर से चीखा..''तवायफ नहीं है यह,हमारी बेगम है''....सन्नाटा छा गया महफ़िल मे..
घुंगरू चुप हो गए एकबारगी से...रिश्ते का यह कौन सा खेल रहा..तवायफ़ को बेगम क्यों कहा...मंज़र
यह कौन सी मुहब्बत का था...घुंगरू और ढोलक की थाप पे यह बारातियों का कैसा हज़ूम था...क्यों कर
माना उस ने एक तवायफ़ को बेगम अपनी...इस दलदल से वो उस को ले जाने आया था...निकाह के
पाक बंधन का वो पुजारी था...सब के सामने तवायफ़ शब्द की धज्जियां उड़ा दी उस ने...किस ने कहा
फरिश्ते धरती पे होते नहीं...बादशाह-बेगम के रूप मे वो इसी धरती के मेहरबां बने...