Wednesday, 14 October 2020

 खेल-खिलौने और संगी-साथी छूट गए बाबुल के द्वारे...अट्हास करते वो बिंदास ठहाके छूट गए बाबुल 


की दहलीज़ के वारे..सहज-सरल मन चल पड़ा किसी अनजान रिश्ते के द्वारे...कौन है यहाँ अपना तो 


कौन पराया...मन क्या जाने इन रिश्तो के ताने-बाने...घूँघट की आड़ मे जिस को देखा वो रूप बहुत ही 


अनजाने थे...पर अब यह सब मेरे अपने थे..यही कहा था मुझ से माँ ने...बहुत कुछ छोड़ा तो यह सब 


पाया,जीवन-धारा कितनी बदली...मन ने फिर अपने मन को ढाढ़स बंधवाया..आँखों का अश्क एक ही 


निकला जो बाबा के पास पहुंचाया...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...