पहाड़ों के पास पास से गुजरती वो अल्हड़ गौरी शयामा थी..अपने ही शिव की तलाश मे वो रात-रात भर
कंटीली राहो से गुजरी थी..कभी रही भूख से बेहाल तो कभी उस को मिलने को तरसी थी...क्या वो उस
को पहचानती थी..क्या वो उस को जानती थी..आँखों से नहीं वो तो उस की रूह की खुशबू से पहचानती
थी...यह कौन सी राहें है जो खत्म नहीं होती...यह कैसे फासले है जो तय नहीं होते..शिव को पाने के लिए
कंटीली राहों पे आज भी चल रही है वो..रूह से रूह का मिलना इतना आसां भी नहीं,यह बखूबी
जानती समझती है वो...