Friday 16 October 2020

 ढाई अक्षर प्रेम के,सदियों से सिखा रहे थे उसे..परिशुद्ध प्रेम की महिमा तक समझा रहे थे उसे..देह का 


मेला इस परिशुद्ध प्रेम मे कहाँ आता है..देह घुल जाए जब इस मट्टी मे तभी तो प्रेम मुकाम तक आता है..


रूह जब भी रूह को पुकारे गी,बस वो तुझी को ही पुकारे गी...पर अब लगता है वो अभी भी माटी का 


इक ऐसा बुत है,जो प्रेम के ढाई अक्षर का सिर्फ एक अक्षर ही पढ़ पाया...हम ने ढाई अक्षर सिद्ध किए 


और बारीकी से इस के शब्द लिखे...आज हम है परिशुद्ध प्रेम की सब से ऊँची पायदान पे और वो अभी 


सीख रहा है बचे डेढ़ अक्षर प्रेम के...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...