कभी ज़िंदगानी ने हंसा दिया तो कभी दर्द से बेहाल कर दिया..फिर भी बात-बात पे उलझते रहे जो इस
जिंदगानी से,तो इस ने दर्द और दे दिया..कितना करती आगाह,कितने इशारे देती..हम ही ना समझे तो
बेचारी यह भी क्या करती..बेपरवाह खुद से रहना..इंसा है इसलिए खुद पे गरूर करना..मोहलत देने की
भी इक सीमा है,इंसा ना समझे तो अब क्यों दुखी होना है..समझ जा अब तो कुदरत के इशारे को,गले
लगा शिद्दत से फिर इसी ज़िंदगानी को..जो ख़ुशी देती है तुझे,इक बार उसी को खुश करता जा..
जिंदगानी से,तो इस ने दर्द और दे दिया..कितना करती आगाह,कितने इशारे देती..हम ही ना समझे तो
बेचारी यह भी क्या करती..बेपरवाह खुद से रहना..इंसा है इसलिए खुद पे गरूर करना..मोहलत देने की
भी इक सीमा है,इंसा ना समझे तो अब क्यों दुखी होना है..समझ जा अब तो कुदरत के इशारे को,गले
लगा शिद्दत से फिर इसी ज़िंदगानी को..जो ख़ुशी देती है तुझे,इक बार उसी को खुश करता जा..