जमीं पे जो बिखरा था किसी रद्दी के कागज़ की तरह..ना रूप था ना रंग था,किसी फूल की तरह..सादिया
बीत चली थी मगर वो कागज़ ज़मी पे पड़ा था किसी कचरे की तरह..ना आस थी ना विश्वास था,किसी
किताब के पन्नो का..खुद ही मुड़ा,खुद ही उड़ा..ख़बर किसी को कानों-कान ना हुई..फिर चली हवा
कुछ ऐसी कि ले गई उड़ा रद्दी के कागज़ को..आज वो कागज़ रद्दी नहीं,इक किताब का हिस्सा है..
निखरा भी है तो जवाब उस का किसी के आगे कुछ भी ना है..
बीत चली थी मगर वो कागज़ ज़मी पे पड़ा था किसी कचरे की तरह..ना आस थी ना विश्वास था,किसी
किताब के पन्नो का..खुद ही मुड़ा,खुद ही उड़ा..ख़बर किसी को कानों-कान ना हुई..फिर चली हवा
कुछ ऐसी कि ले गई उड़ा रद्दी के कागज़ को..आज वो कागज़ रद्दी नहीं,इक किताब का हिस्सा है..
निखरा भी है तो जवाब उस का किसी के आगे कुछ भी ना है..