लब जो जुड़े तो फिर कभी खुल ही ना पाए...सफर तो सदियों का तय कर के आए थे,फिर भी बोल कुछ
ना पाए...मजबूरियों का दौर था या खुद को दिया कोई वादा था...जो खुद को ही ना बता पाए...संकरे
रास्ते थे और गहन अँधेरा,तब भी लब ख़ामोशी के राज़ खुद मे छुपाए गुफ़्तगू कर ही ना पाए...कदम तो
चल रहे थे,दिल था जो अभी भी धड़क रहा था...पर लब.........जो खुल ही ना पाए...फिर आया इक
गहरा तूफ़ान और सब कुछ खुद मे समेटे,यह लब उसी मे दफ़न हो गए...