वो तो सिर्फ इक कांच का टुकड़ा था और हम उसे हीरा मान बैठे...बेवजह घिसने की कोशिश मे हाथ
खुद के जख्मी कर बैठे..कांच भी ऐसा जो सीधा चुभा दिल मे ऐसे कि दिल के लहू को रोकना मुश्किल
कर बैठे...कांच को हीरा मान लेने की गल्ती कैसे कर बैठे..ज़मीर कहता है वो हीरा था पर दिल जो आज
भी ज़ख़्मी है..ज़मीर की सुनने को तैयार नहीं होता...अब रोज़ ज़ख्म के भरने के लिए कोशिश करते है...
पर अकेले मे मुस्कुराते हुए खुद से पूछते भी है कि हम हार कर जीत गए या फिर जीत कर हार गए....