क्या हुआ फिर ऐसा आज कि इस ज़िंदगी से फिर खफ़ा हो गया...फिर कोसा इस को और खुद की
तकलीफ़ों पे फिर ज़ार-ज़ार रो दिया...अरे पगले,यह जीवन तो शुरू ही रोने से हुआ है..इस मे रंग
ख़ुशी के भरना तो काम तेरा है...यह ज़िंदगी तो बड़ी ज़ालिम है,हर पल ज़ख्म देती है..पगले,लगा इस
पे हिम्मत की मरहम कि ज़िंदगी खुद ही ख़ुशी देने पे मजबूर हो जाए गी...ना मांगना कुछ ऐसा,जो
खिलाफ कुदरत के हो..बस मांगना वही जो कुदरत के दरबार मे मंजूरे-लायक हो...