गहन ख़ामोशी है..पर इसी ख़ामोशी को चीरती इक आवाज़ सुनाई देती है दूर कही..कड़क रही है
बिजली संग बादलों के कही...चाँद छुपा है अपनी ही अकड़ मे इन्ही घनेरे बादलों के तले...भूल गया
है यह चाँद ,यह बादल जब भी बरस के ख़ाली हो जाए गे..बिजली भी तब कहां कड़क पाए गी...अपने
वज़ूद को छुपाना नामुमकिन है..चाँद की अहमियत कितनी है,पर अकड़ की राह भी तो बहुत मुश्किल
है...देख सूरज को ज़रा और भूल अकड़ अपनी,निखर के बाहर आज़ा ज़रा...