मुन्तज़र तो नहीं तेरे लिए,मगर तुझ से मुख़ातिब तो है...जिस रास्ते पे तू चले,उस पे रुके तेरे रहनुमा तो
है...भटक ना जाना फिर कभी ग़ल्त गलियों मे,नज़र तुझी पे रखे तेरे राहे-हमसफ़र तो है...चल रहे है
तेरे साथ इक दरख़्ते-शाखा की तरह,तुझे तो शायद खबर तक नहीं कि तेरे ही शहर के बहुत जयदा
नज़दीक आ चुके है हम,किसी महकती सुबह की तरह...परवरदिगार को सब पता है..तभी तो मुंतज़र
नहीं अब तेरे लिए...पर मुख़ातिब तो है...रहनुमा भी है....