जिस्म की ईमारत पे खड़ा वो प्यार था या सिर्फ छलावा था..सोच कर आंखे भर आई उस की...जिस्म तो
जिस्म है,रूह की बंदिशों से परे...रूह तो निखरी-निखरी और मासूम है..किसी देवालय की तरह...जिस्म
तो किसी रोज़ मिट जाए गा,सूखे पत्तो की तरह...रूह मे समेटे इस प्यार को,वो साथ अपने ले जाए गी...
जन्म जितने भी ले गी, इसी मासूम रूह के साथ नए जिस्म को लाए गी...रूहानी-एहसास प्यार का, वो
फिर से उसी को याद दिलाए गी...जीना तो तेरे ही संग था हर जन्म,यह बात दोहराए गी...