Tuesday, 26 January 2021

 कच्ची उम्र और अल्हड़पन...हिरणी की तरह भागती-दौड़ती इक बाला...शहर से कोई परदेशी आया...


लुभा लिया अपने प्यार के मोह-पाश मे..एक रही तृष्णा ऐसी,वो हुई संगनी उस की..शहर के लोगो की 


कैसी माया,झूठ-मूठ का साथ था ऐसा...छला उस हिरणी बाला को..मंगलसूत्र का रिश्ता तोड़ा और जबरन 


बंधा घुंगरू का पांव मे जोड़ा...वो बेबस थी,देह का सौदा हर रात ही होता...बरसो बीते,कोई परदेसी फिर 


से आया..रूह पे लगे घाव को सहलाने आया...''देह का कोई मोल कहां..तुम आज भी रूह से पावन हो''


यह भी कैसी लीला है..एक ने उस को देह-बाजार मे बेचा तो दूजे ने उस को रूह का मोल समझाया..


 

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...