तक़दीर सुनाती रही अपने फ़ैसले और हम उस के फैसलों से हर बार रज़ामंद ना हो सके...तेरे दिए हर
दर्द को,हर तकलीफ को.. क्यों सर झुका कर सज़दा कर दे जब कि उस के लिए हम कसूरवार तक
नहीं..साँसे छीन लेने का हुक्म सुना देती तो हम हंस कर सांस तुझे समर्पित कर देते...थोड़े कम मे जीने
को कहती तो भी कहना तेरा मान जाते...पर तेरे ग़ल्त फ़ैसले पे जंग मेरी भी जारी है...वो तो सब कुछ
जानता है तो तुझे अब मुझ से क्या कहना है... मेरी हिम्मत को दाद दे,ऐ तक़दीर मेरी...जो तूने लकीरो मे
लिखा तक नहीं वो भी तो मैंने उस खुदा से मांग कर पाया है..अब हारना तुझे है मुझ से क्यों कि जीतने
का हौसला तेरे हर फ़ैसले पे भारी है...