क्यों आईने ने आज चुपके से कहा..महकना ही तो जीवन है..फिर सिंगार का मायना कहाँ रहा..लबों
पे मुस्कराहट जब है इतनी गहरी तो इन पे लालिमा का रंग जरुरी ही कहाँ..आंखे जब खुद ही ख़ुशी से
चमक रही है इतना तो भला काजल का यहाँ काम कहाँ...दिल यू ही जब बिन बात बहक रहा है तो फिर
किसी साथी की जरुरत ही कहाँ...जब कदम खुद ही खुद के साथ मिला लिए तो ज़माने की अब परवाह
किस को कहाँ..हां आईने,तूने सच ही कहाँ..''महकना ही तो जीवन है ''..अब ताउम्र तेरे सिवा किसी और
की भला सुने गे कहाँ...