सोलह सिंगार करते-करते मिलन की बेला तो निकल गई...रूप की झंकार जब तक महकी,भोर अपना
आंचल लिए आंगन मे पसर गई...आईना देखा,सूरत तो संवर गई...किस काम के रहे यह सोलह सिंगार,
जब साजन उस से गुफ्तगू किए बिना नींद मे खो गए..भोर के आंचल मे जब वो मिले हम से...यू एहसास
हुआ कि हम तो उन के लिए कुछ भी नहीं...'' सोलह सिंगार की क्या जरुरत है,जब हम ने आप को
सादगी मे चाहा है...मिटे थे सिर्फ तुम्हारे भोलेपन पे,यह सिंगार तो हमारी दुश्मन है''....आंख भर आई
सुन पिया की बात..अब सादगी और भोलापन ही समर्पण की बेला है....