Sunday 29 September 2019

वो खुद को समझते रहे इक कागज़ का फूल...वो कागज़ हू मैं,जिस पे जो भी लिखा मैंने कोई समझ

नहीं पाया..टुकड़े टुकड़े हो के जिया,मगर किसी का अब तक पूरा हो नहीं पाया...कोई संग चला कुछ

दिन मेरे,कोई साथ निभा ही नहीं पाया...मौन हुई मेरी भाषा,जब कोई हमसफ़र मेरा हकीकत मे बन

नहीं पाया..हम बोले,कैसे कोई तुम को भाता..कागज़ की स्याही तो हम ही थे,उस पे कौन लिखता नाम

हमारा-तुम्हारा...तुम हो वो कोरा कागज़,हमारी स्याही ही लिखे गी अब नाम मेरा और तुम्हारा...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...