कितने सवाल करती है तू अरे ज़िंदगी....कभी तो रुक अपने रुतबे के तहत...तुझे लगा नहीं कभी कि
बेहिसाब दर्द बिखेरा है तूने इंसानी फितरत के लिए....तुझे पता भी नहीं कि तूने की है दग़ा हज़ारो बार
किस किस के लिए....रुलाया तो इतना रुलाया कि यह साँसे रुक ही जाने को हुई...फिर अचानक से
ऐसा हसाया कि आंखे ख़ुशी से बरसने ही लगी...पर तुझी से यह मेरी इल्तिज़ा.....कि कितने सवाल
तू कर जाती है अरे ज़िंदगी....
बेहिसाब दर्द बिखेरा है तूने इंसानी फितरत के लिए....तुझे पता भी नहीं कि तूने की है दग़ा हज़ारो बार
किस किस के लिए....रुलाया तो इतना रुलाया कि यह साँसे रुक ही जाने को हुई...फिर अचानक से
ऐसा हसाया कि आंखे ख़ुशी से बरसने ही लगी...पर तुझी से यह मेरी इल्तिज़ा.....कि कितने सवाल
तू कर जाती है अरे ज़िंदगी....