हम ने पलकों को बिछाया समंदर के किनारे-किनारे...मगर यह क्या, समंदर खुद ही चल पास हमारे
आया...उठा भी ना पाए इन पलकों को,और यह बेहिसाब हम को भिगोने खुद पास आया...क्यों बंद
नैनों की भाषा इस को समझ आती है...इस के खारेपन की महक तो हमे दूर से आ जाती है...कशिश
हमारे बंद नैनों की इस को यह याद दिलाने आई है...तू गहरा बहुत है लेकिन,तुझे अपने को सवांरने
के लिए मीठा होने की बहुत जरुरत है...
आया...उठा भी ना पाए इन पलकों को,और यह बेहिसाब हम को भिगोने खुद पास आया...क्यों बंद
नैनों की भाषा इस को समझ आती है...इस के खारेपन की महक तो हमे दूर से आ जाती है...कशिश
हमारे बंद नैनों की इस को यह याद दिलाने आई है...तू गहरा बहुत है लेकिन,तुझे अपने को सवांरने
के लिए मीठा होने की बहुत जरुरत है...