Saturday 22 December 2018

स्याही जो फैली पन्नो पे,घबरा गए...दो बून्द आंसू आँखों से गिरे,और माज़रा सारा समझा गए...ओह

अब काम हीं नहीं इन आंसुओ का,जो गुजर गया वो तो भुला चुके..ज़माना बुरा है बहुत,उन रास्तो को

कब का छोड़ चुके....मान सम्मान देने के लिए,आज भी बहुत है फ़रिश्ते जो हमारी क़द्र करते है..कलम

हमारी की आज भी परवाह करते है...तभी तो यह कलम दर्द के साथ मुहब्बत को भी पन्नो पे बिखेरा

करती है..ना अपनी आँखों को रोने से मना करती है,अपने तमाम फ़रिश्तो को भी ऐसी कलम की ताकत

से रूबरू करती है......

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...