Friday 7 December 2018

लफ्ज़ो की यह अदायगी क्या अजीब उलझन सी है...मिठास जो भर ले,दिल को छू जाती है...नफरत

को जो इशारा दे,ज़िंदगी ही खफा हो जाती है...लड़खड़ा कर जो दगा दे जाए,जीवन ही वीरान कर जाए..

फिर कभी बहुत दूर से खनकता सा इशारा कर जाए,कसम खुदा की......आँखों को ही नम कर जाती है..

अब कहे क्यों ना..लफ्ज़ो का यह खेल अजीब दास्ताँ है...जो कहते ना बने,जो जो लिखते ना बने..



दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...