Friday 21 December 2018

यह कलम जब जब चलती है इन पन्नो पे,हज़ारो सवाल उठा जाती है....फिर यही कलम हर जवाब

को समेटे इन्ही पन्नो मे लिपट जाती है...कितने ही सवाल और उन के ढेरो जवाब,पन्ने जो अब ढल

चुके है नायाब सी किताब मे....वक़्त तो चल रहा है अपनी चाल से,कहू भी तो रुकता नहीं मेरे कहने

के हिसाब से...हर हर्फ़ को समेटे इस किताब मे,कितने आदेश दे चुका हर हर्फ़ आने वाले वक़्त के

हिज़ाब से...स्याही अभी लिख रही है कुछ हर्फ़ अपने विचार से,सोचने की बात है क्या लिखा जाये गा

पन्ने के अंतिम भाग पे...

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...