Sunday 14 February 2016

कही उलझन कही टूटन..कही वो बॅधन बिखरे से----वो छूती सी तपन..वो बहकी सी

अगन..थकतेे से पाॅव बालू पे--- सूरज की तपिश सा यह जलता तन...बरफीली हवाओ

के आॅगन मे---इॅनतजार है अब किस का..मुहबबत का या लॅबी जुुदाई का---पसरा है यह

सननाटा जलती लौ के चिलमन सा..जिए कैसे यह दीपक अब कि सवेरा दसतक देेेने

को है---

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...