Monday, 30 July 2018

यह राते क्यों दस्तक देती है आज भी तेरी उन नरम गुफ्तगू की आगाज़ का...क्या सुन लिया मैंने

जो नज़ारा बन गया किसी शाही आफताब के रुख्सार का....दर्द की चादर मे अक्सर इक हंसी होती

है तेरे रूहानी लिबास की ....कहते है चाँद से तेरे चेहरे को याद कर आज भी नज़र हटती नहीं उस

सुर्ख जोड़े के मखमली अंदाज़ से...बिखर कर टूट कर,समा जाऊ तुझ मे,किसी शबनबी ओस की

पहली मुबारक सुबह की रौनकी अंदाज़ सी ....

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...