Thursday 27 April 2017

समंदर के पानी की तरह,यह ज़िन्दगी भी बस बहती रही.बहती रही--कभी टकराई काँटों से तो कभी

पत्थरो से चोट खाती रही--संभल संभल कर भी चले तो भी गुनाहो के दाग लगाती रही--मुस्कुराये जो

सब भूल के तो भी दामन को दागदार करती रही..करती रही--बहना ही जब था मंज़िल की तरफ,तो

दागो का हिसाब भूलना ही पड़ा--वाह री ज़िन्दगी,तेरी नादाँ भूलो को नज़रअंदाज़ कर के...आज अपनी

मंज़िल को पाने की खवाइश बस कामयाब होने को लगी..होने को लगी---

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...