ऐसा तो नहीं कि पहली बार ओस की चादर मे बैठ कर रोए है...पर हां,आज पहली बार अपने आँसुओ
की बहती चादर पे सोए है...करवट भी लेते है तो सैलाब फिर से दस्तक दे जाता है...हैरान है तो परेशान
भी कि इन आँसुओ की तह कितनी दबी थी अंतर मे...मुस्कराहट दे कर कितनो को,खुद ख़ामोशी से
जीते आए है..खबर किस को कि कितनी दूर अब निकल आए है...रात है कि खत्म होने को तैयार ही
नहीं...शायद इस बांध के रुकने की इंतज़ार मे,सुबह भी अब तक नहीं आई है...