यह कौन सा अंदाज़ है जनाबे-आली आप का ...जी तो है मुस्कुराने का,पर लबों को बेदर्दी सी लिया..
वजह ना भी मिले हंसने की पर हम फिर भी खुल के हंस दिया करते है...दीवाना पागल यह दुनियाँ
बेशक कहती रहे मगर पागलपन का यह अंदाज़ हमारा बहुत पुराना है...राह चलते किसी को देख
मुस्कुरा भर दिए,उस को देख हँसता हम फिर अपनी राह निकल गए..पीछे मुड़ कर जो देखा तो वो
अब तक ख़ुशी के माहौल मे था..जनाबे-आली,मुस्कुराने की कोई कीमत नहीं होती..जैसे यह ज़िंदगी
कब ख़फ़ा हो जाए,इस की भी कोई गारंटी नहीं होती...