हर सांस के साथ पिरोते रहे,इस ज़िंदगी की माला...कभी रही फूल सी हल्की यह साँसे तो कभी दर्द के
भार से भरी रही यह साँसे...खड़ी थी सामने यह ज़िंदगी.अरमानों की गठरी लिए...चाह कर भी इन साँसों
का यह चलता काफिला रोक ही नहीं पाए...ऐ कुदरत,दे कोई इशारा अपना...भर दे या तो यह गठरी
अरमानों की या इस गठरी को अंधेरो मे ग़ुम कर दे...करिश्मे तो तेरे कितने होते है...कभी दिखते है
खुली आँखों से तो कभी पहाड़ो को चीर समंदर तक को भिगो देते है...