बहुत गहन ख़ामोशी हो तो भी लफ्ज़ सुन ही जाते है...हज़ारो आवाज़े चीखती रहे मगर ख़ामोशी की वो
आवाज़ जिस को सुननी है.उसे सुन ही जाती है..मौन भी तो इक सुखद भाषा है,बेशक हो उस मे गिले
कितने..शिकवा तो यह ख़ामोशी भी कर देती है,बात सिर्फ ख़ामोशी की भाषा समझने की है...मौन हो
या ख़ामोशी..फर्क सिर्फ इतना होता है..मौन को सुनने के लिए दिल प्यार से भरा होता है..ख़ामोशी की
बात इतनी सी है,गिला हो या शिकवा कैसा भी...वो दर्द की राह आँखों से बह जाता है...