Thursday 10 November 2016

ज़माना देता रहा हज़ारो ही ज़ख्म...देता रहा दर्द ही दर्द----कुछ अनकही कुछ अनसुनी...कुछ रह

गई इस सीने मे,किसी गहरे नासूर की पहचान बन कर----कभी रो लिए तन्हाई मे,कभी फूटे ज़ख़्म

रात के अंधेरे मे----ज़ी हल्का हुआ तो याद आया..यह सारी दुनिया तो बेमानी है---खुद ही खुद मे

मुस्कुरा दिए..ज़िन्दगी नाम है बस जीने का..यह सोच कर खुदा की इबादत मे झुक गए----





दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...