ना जा दूर इतना मुझ से, कि लौट के आना मुनासिब ना हो---इश्क़ क़ी मजबूरिया इतनी ना बड़ा,क़ि
हुस्न की आग मे फिर से जलने का सबब ही ना हो---रेत पे पाव धरते धरते झुलस जाए गे तेरे अपने
ही कदम---हाथो की लकीरो को मिटाने के लिए,गर्म लावे मे इन को ना जला---नमी तो आज भी है इन
आँखों मे मेरी,अपनी आँखों को इतना ना घूमा कि मेरे पास लौट के आना मुनासिब ही ना हो----
हुस्न की आग मे फिर से जलने का सबब ही ना हो---रेत पे पाव धरते धरते झुलस जाए गे तेरे अपने
ही कदम---हाथो की लकीरो को मिटाने के लिए,गर्म लावे मे इन को ना जला---नमी तो आज भी है इन
आँखों मे मेरी,अपनी आँखों को इतना ना घूमा कि मेरे पास लौट के आना मुनासिब ही ना हो----