Saturday, 22 September 2018

वो तो कांच के टुकड़े थे,जिन्हे हम हीरा समझते रहे...सारी उम्र तराशा मगर, चमक ना दे  कर वो बस

दिल मे ही चुभते रहे...जोड़ने की कोशिश मे,हाथो मे हमेशा दर्द देते रहे....सोचा बहुत बार,चाहा भी

बहुत बार कि कण कण इस का समेटे और एक सार कर जाए..मगर कांच तो कांच रहा,हलकी से

ठसक से टूट गया...धार तीखी फिर ना चुभ जाए,इस खौफ से कांच को कांच समझ छोड़ दिया ....

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...