कोई रस्म नहीं,कोई रिवाज़ भी नहीं..बस माँ--बाबा की हिदायतों को मानते मानते परवरदिगार के
सज़दे मे झुकते चले गए...उम्मीदे ही नहीं,शिकायते भी नहीं...जो दिया,जो मिला..उस के मुताबिक
कुदरत का शुक्रिया अदा करते चले गए...चाहते भी कुछ नहीं,ख्वाईशो का कोई मायने ही नहीं..कुछ
गिला उस मालिक से भी नहीं,कोई उम्मीद उन के बन्दों से भी नहीं...यह सुबह खुशगवार है,हर दिन
को उसी का दिन मान कर....बस सज़दे मे झुकते चले गए...
सज़दे मे झुकते चले गए...उम्मीदे ही नहीं,शिकायते भी नहीं...जो दिया,जो मिला..उस के मुताबिक
कुदरत का शुक्रिया अदा करते चले गए...चाहते भी कुछ नहीं,ख्वाईशो का कोई मायने ही नहीं..कुछ
गिला उस मालिक से भी नहीं,कोई उम्मीद उन के बन्दों से भी नहीं...यह सुबह खुशगवार है,हर दिन
को उसी का दिन मान कर....बस सज़दे मे झुकते चले गए...